Thursday, December 26, 2013

ज्योति जले

जग मग -जग मग ज्योति जले 
जन जीवन को ज्योतिर्मय कर दे 
दीवाली का पर्व आपके जीवन में 
प्यार भरे, उत्साह और उल्लास भरे 
मन के तम को आलोकित कर 
जीवन में जीवन रस भर दे 
जग मग -जग मग ज्योति जले 
तलाश

मैं  हर वक़्त हर जगह 
तलाश करता हूँ 
एक दोस्त 
एक साथी 
एक यार 
एक हमराज़ 
मिलते है कई एक 
किन्तु पल दो पल को ही 
कुछ कदम साथ चल कर 
कुछ एक मोड़ मुड़ कर 
छोड़ देते है साथ 
कहते है 
वक़्त बदलता है 
राहें  बदलती है 
यार भी बदलने दो 
प्यार को न बंधने दो 
उसे हर आँख का कमल 
हर ओंठ कि कली 
हर दिल का गुलाब बनने  दो 
मेरे दिल के गुलदस्ते में 
यादो के कई फूल 
अध् मुस्काए मुरझाए पड़े है 
और मै  इन्हे 
जब तब 
अपने आँखों के 
गमगीन पानी से 
सींचता हूँ 
ज़िंदगी जीने के बहाने ढूँढता हूँ 
ज़िंदगी ढोने के सहारे ढूढ़ता हूँ 

                                 अशोक जौहरी 

Wednesday, December 25, 2013

मौसम बहुत प्यारा है

आज शाम से मौसम बहुत प्यारा है 
कुछ -कुछ तो ठंडक है 
कुछ -कुछ बदराया है 
बूंदो कि रिमझिम से
 नम  रेशमी हवा 
रह -रह कर मुझे लपेट लेती है 
और मैं 
तुम्हारे होने के अहसास को ढूँढता 
तुम्हारी महक को खोजता 
इधर से उधर 
उधर से इधर 
बरामदे में टहल रहा हूँ 
और तुम मिलती नहीं 
कही भी दिखती नहीं 
यह सूना -सूना बरामदा 
बहुत बड़ा लगता है 
खाली  ताले बंद कमरे 
खाली अरगनी 
खाली कुर्सिया 
सब बेवज़ह लगती है 
लेकिन 
आज शाम से मौसम बहुत प्यारा है 
कुछ -कुछ तो ठंडक है 
कुछ -कुछ बदराया है 
रहे -रहे लगता है
हाँ कहीं तुम हो 
नल के करीब बैठी 
कप प्लेट धो रही हो 
या बाथ रूम में कुछ गुनगुना रही हो 
या गैस पर मेरे लिए 
चाय का पानी -----
नहीं -नहीं 
तुम कही नहीं हो 
तुम हो मेरे खयालो में 
लेकिन आज शाम से मौसम बहुत प्यारा है 
और तुम नहीं हो 


                                    अशोक जौहरी 

Tuesday, December 24, 2013

प्रेम की  अनुभूति

तुम्हारे प्रेम की  अनुभूति से 
जो सुख मिला मुझको 
उसी की याद कर 
मैं काट दूंगा 
ज़िंदगी अपनी 
तुम्हारे साथ के दो पल ने 
मुझको वह ख़ुशी दे दी 
कि जिसकी चाह में 
व्याकुल था 
सारी उम्र मै अपनी 
न होना तुम कभी चिंतित 
कि दुःख से दूर हूँ अब मै 
तुम्हारे प्यार के दो पल ने 
मेरी ज़िंदगी सींची 

                          अशोक जौहरी 
प्राण में मेरे 

प्राण में मेरे पला क्यों प्रिये प्यार तेरा 
नयन में मेरे बसा क्यों प्रिये साज तेरा 
क्यों ह्रदय मेरा बना तेरा बसेरा 
क्यों मेरा गम बन गया तेरा अँधेरा 
आज मेरी साँस तेरी सांस में क्यों पल रही 
और मेरी भोर तेरी लालिमा क्यों बन रही 
क्यों तुम्हारी हर अदा मेरे लिए एक जाम है 
क्यों तुम्हारा मुस्कराना मेरी दिली प्यास है 
क्यों निशा का हर पहर बीता तुम्हारी याद में 
क्यों विरह का एक छण बदला  कई साल में 

                                               अशोक जौहरी 

sookhe hue per ki

                 सूखे हुए पेड़  कि

                 सूखे हुए पेड़ कि 
                  टूटी हुई टहनी पर 
                  आपस में लिपटे 
                  खुआबो में डूबे 
                  बैठे है कौन वो 
                   वो 
                   जिन्हे पता नहीं 
                   खुआबो से दूर कहीं 
                    वास्तविक स्तर पर 
                    सूखे हुए पेड़ कि 
                     चिटकी दरार में 
                     फन  काढ़े बैठे है 
                     काले- काले नाग कई 
       
                                                  अशोक जौहरी 
                            सूरज निकले न निकले
           
                            सूरज निकले न निकले   
                            तुम सबेरे -सबेरे  मुझसे मिलती रहो 
                            मेरे गम का अँधेरा युहीं कट जाएगा 
                            चाँद रातों को बदली में छुप  जाए तो 
                             प्यार की  एक नज़र से मुझे देखना 
                             मेरे दिल में उजेला हो जाएगा 
                             प्यार का ये सफ़र तो रंगीन है 
                              इसमें खुशियां भी हैं 
                              कुछ ग़मगीन है 
                              आओ वादा करे 
                              गम कि राहे हमे न करेगी जुदा 

                                                                अशोक जौहरी 
                              
                   सबेरे सबेरे

                   तुम सबेरे सबेरे 
                   मेरे सामने ऐसे थी 
                   जैसे 
                   मेरी सारी  खुशियाँ 
                    सिमट कर 
                    तुम्हारी आँखों में 
                    मुस्करा रही  हों 

                                          अशोक जौहरी  

                   मन भटकता है 

                   मन भटकता है अकेले इस भरे पूरे शहर में 
                   है कहां वह ठांव मुझको मिले पल भर छांव 
                   धूप  कि तपती  दोपहरी सा जला मन 
                   ढूंढता हर ओर जैसे प्यार की एक छांव 
                    शहर में भटके मुसाफिर सा थका  मन 
                   हो व्यथित फिर खोजता है आज अपना गांव 
                    राह जितनी चली हमने दूर उतने आ गए 
                   और चलने को नहीं उठते ये मेरे पांव  

                                                           अशोक जौहरी 

Monday, December 23, 2013

                              गाड़ी का धुंआ 

                     गाड़ी के पीछे लिखा था 
                    ' गाड़ी का धुंआ समाज का कैंसर   है '
                     और हम ये देख रहे है --
                     हर गाड़ी वाला धुँए का लाइसेंस सुदा 
                     रजिस्टर्ड प्रोडूसर है 
                      वह रात दिन पूरी लगन और मेहनत से 
                     शहर कि सडक़ो पर धुँआ उगलता घूमता है 
                     लेकिन आप --आप सम्भल जाए 
                     खैरियत इसी में है  कि सडक़ पर न जाए 
                     क्योकि आप ही उसके आइडियल कंजुमर है 
                     और फिर कैंसर से बचे 
                     तो दुर्घटनाए -----
                     उनसे कैसे बच पाए गे 
                     कभी तो उसकी चपेट में आएगे 
                      इसलिए  आप संभल जाए 
                      खैरियत इसी में है कि सडक़ पर न जाए 
                      गाड़ी का धुँआ  समाज का कैंसर है 
                       और गाड़िया ??? 
                       दुर्घटनाओ कि जनक  

                                                              अशोक जौहरी
                                                                28 . 9 . 92  

Monday, December 2, 2013

न हम मरते न तुम 


स्वर्ग सिधारे दो यूवक 
अचानक किसी मोड़ पर 
एक दूसरे से टकराए 
एक ने दूसरे से पूछा 
 क्यू  भई  आप यहाँ कैसे आए 
अजी बस पूछिए नहीं 
हमारे दिल ने बहुत सदमे खाए 
और जब दिल भर गया 
तो हम यहाँ चले आए 
हुआ य़ू --
कि एक दिन मुझे शक हो गया 
कि मेरे दफ्तर जाते ही 
कोई मेरे घर आता है 
मेरी बेगम से इश्क लड़ाता है 
आखिर कैसे सहता 
था मै  भी पुराना घाघ  
एक दिन घर से निकला दफ्तर के लिए 
और बेगम के दरवाजे भेड़ते  ही 
सामने वाले घर में जा कर 
उसकी खिडक़ी पर जम  गया 
नज़रो के टेलिस्कोप को 
अपने दरवाज़े पर फोकस किया 
तो देखता हू ---
एक पुरुष मेरे घर में 
ठीक मेरी तरह घुस गया 
मेरी तो जमीन  ही खिसक गई 
होश गुम हो गया 
मैं  भाग कर वहा  पंहुचा 
तो घर में उसे कही नहीं पाया 
हमारे दिल ने ये आखरी सदमा खाया 
फिर मै  वहाँ  क्या करता 
फ़ौरन स्वर्ग का टिकट कटाया 
और थ्री टायर में यहाँ चला आया 
लेकिन मित्र तुम ? 
तुम यहाँ कैसे आए ?
मुझे -मुझे तो ठंडक ने मारा
अरे ढूढ़ा ही था तो ठीक से ढूढ़ते 
फ्रिज खोल कर तो देखते 
न हम मरते न तुम मरते 

                             अशोक जौहरी 
आंधी के ये झोंके 

तेज़ तूफ़ान सी 
आंधी के ये झोंके 
कि जिनमे कांपती शमां 
जलते बुझते ,किसी तरह जिए 
ज़िंदगी की  हर परेशानी सहे 
और उस पर 
जिसकी मंज़िल  मौत है 
उस रास्ते  पर 
तेज़ कदमो से भगे 
साथ ही खुद को जला दे 
तन गला दे 
आखरी छण तक 
हज़ारो राहगीरो को 
सही राहे  दिखा दे 
किन्तु फिर भी जब मरे 
संसार ये इलज़ाम मढ़ दे 
रात से सुबह तक 
ढेर सारे  इसने परवाने जलाये 

                                  अशोक जौहरी 

x

आप यह भूल जाए 

भारत के पूर्व प्रधान मंत्री श्री नरसिम्हा राव कि सार्वजानिक अपील के सन्दर्भ में ----

दोस्तों अपना कान खोले 
अपनी नज़र अपना ध्यान 
मेरी तरफ मोड़े 
मैं  राजनीती के समंदर में 
सरकारी महारथिओ की  मदद से 
गोते लगा कर 
देश कि सम्रिधि और 
आर्थिक स्वतंत्रता के लिए 
एक राज़ हासिल कर लाया हूँ 
जिससे देश कि सम्रिधि बढ़ेगी 
और आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी 
बस आप को करना इतना है 
कि तीन वर्ष तक आप भूल जाए 
कि आप है 
और आप की समस्याए है 
तीन वर्ष बाद -----
भारत का अर्थ तंत्र 
विश्व के सारे  कीर्ति मान तोड़ कर 
शिखर पर चढ़ जाएगा 
और यह देश भारत ,
 फिर से 
सोने कि चिड़िया कहलाएगा 
बस एक बार ,बस एक बार 
आप यह भूल जाए 
कि आप है 
और आप की समस्याए है 

                                      अशोक जौहरी 

Friday, November 22, 2013

 कल मंदिर बन जाएगा -----


निर्मल जल कल रव  कल करता 
बडता पथ पर सोंच रहा 
मै जाऊ किस ठौर डगर तक 
राह पथीरी  स्वर करती 
रुक जाओ यही पर 
आगे कंटक बिछे पड़े 
चुभने को शत प्रतिशत 
जल मुस्काया -
वह बोला -मत समझो 
मेरा तन छोटा है 
और मन निर्मल 
बूँद -बूँद मिल गई ,
धरा पर सागर सा लहरा जाएगा 
और निर्मल मन के भीतर तो 
एक स्पाती  संकल्प छुपा है 
ये माना सरकारी बांधो ने 
मुझको रोका है 
रुके अगर एक साथ कही पर 
तो ये भी सबने देखा है 
कि उगली हमने 
कितनी बिजली ,कितनी ऊर्जा है 
और टूटा जब ये बांध 
धरा पर प्रलयंकारी दृश्य हुआ है 
युं जो आया ,हमने उसको 
आलिंगन कर गले लगाया 
बड़ी -बड़ी चट्टानों को भी 
अपने जैसा सरस बनाया 
शूलों  से भी कब है हमने बैर निभाया 
उनको अपना रक्त पिला कर 
उनमे हमने फूल खिलाया 
रोक सका जग में न कोई राह हमारी 
हमको ऐसा शंकर से  वरदान मिला है 
अपने रस्ते हमने खुद ही खोजे है 
और स्वम हमने ही अपनी राह बनाई 
हम प्रकर्ति है ,हमी ब्रह्म है 
हमी सूक्चम ,हमी विस्तार 
हमी धरा है हमी गगन है 
हमी बूँद हम सागर ज्वार 
इसी लिए कहता हूँ 
पथ में मेरे न कोई आये 
आया जो भी राह हमारी 
लहरों  से मसला जाएगा 
मंत्री संत्री न्यायालय का भी 
भ्रम  मिट जाएगा 
जहा बनी है आज बाबरी 
कल मंदिर बन जाएगा 

                         अशोक जौहरी 
इतिहास गवाही देता है

इतिहास गवाही देता है 
बाबर ने मंदिर तोड़े थे 
जहा बनी है आज बाबरी 
वाही राम लला जन्मे थे 

                    इसका निर्णय अब कौन करे 
                    इसका निर्णय क्या होना था 
                    पहले जन्मे थे राम चन्द्र 
                    या पहले बाबर जन्मा था 

हिन्दू तो सहता आया है 
सादिया सदियो से रही जान 
न सहता तो कैसे होती 
मंदिर के खँडहर पर अजान 

                    सच्चा  है इस्लाम अगर  तो 
                    स्वेम ढहा दे मस्ज़िद को 
                    मंदिर का निर्माण करे 
                    और गले लगा ले हिन्दू को 

                         
                                                     अशोक जौहरी 
                    

Thursday, November 21, 2013

खोल गई राज़----

गुनगुनी हवाओ के  अखड़ से झोके ने 
धोके से खोल दिया मुझसे ये राज 
लगता है बदल गया मौसमी मिज़ाज़ 

गेंदे के फूलो से भरी-भरी क्यारी 
खेतो ने ओढ़ी है सरसों कि साड़ी 
सडक़ो पर टंक गए पत्तियो के फाल 
बौराई डालो ने खोला ये   राज़ 

मन कि कलिओं में टीस लगी उठने 
दिल कि गहराई में उग आए सपने 
भावुक मन ऐसे में लगता है बहने 
भौरों ने फूलो से खोला ये राज़ 

पग ने पहचानी अब पनघट कि राह 
जीने कि तबसे क्यों बढ़ गई है चाह 
तनहा दोपहरी सा  मन  भरे आह 
प्यासी गौरैया ने खोला ये राज़ 

खोए नयन व्याकुल मन जादू सा जगा तन 
सपनीली राहों  से लांघते उम्र के पहाड़ 
यौवन कि देहरी पर कांपते सब्र के किवाड़ 
कोयलिया कुहुक कर खोल गई राज़ 

                                                अशोक जौहरी 

Wednesday, November 20, 2013

तेरी इक हंसी -----

तेरी इक हंसी की  खातिर
मैं  हज़ार अश्क़ पी लूंगा

गमों  की  शाम जो आई
तो हंस के जी लूंगा

लवों पे उफ़ भी आई
तो लव को सी लूंगा

तेरे लव जो मुस्कराए
तो मैं ज़हर भी पी लूंगा

                               अशोक जौहरी 
शीत गीत .......

ये शीत लहर ,ये ठिठुरन 
ये ठंडी -ठंडी सांसे 
ये आसमान का जमना 
कैसा अजीब है लगता 
सूरज के बिना सबेरा 
एक दर्द बन गया है 
हर रात चाँद का उगना 
मेरे पड़ोस की  सभी छतें 
कोहरे में डूबी ढकी हुई 
कुछ दूर नीम से चिपकी है 
या पीपल में अटकी हुई है 
खपरैलों पर पाला बिखरा है 
गालियाँ  ओले सी ठंडी है 
कुत्ते तो कही नहीं दिखते 
गाएँ  बोरों में लिपटी हुई 
सहमी-सहमी सी लगती  है 

मै ओवरकोट  के ऊपर 
ऊनी दुशाला ओढ़े 
दांतो को किट -किट करता 
खिडकी से झांक रहा हूँ 
कि इतने में कुण्डी खटकी 
मैंने जो नीचे देखा -----
तो कुत्ते से अधिक अभागे 
गाए से ज्यादा सहमे 
महरी के दो बच्चे 
मैले कपड़ो में लिपटे 
बेमन से खड़े हुए थे 
कपड़े भी फटे -फटे थे 

मैंने आँखों से देखा 
और एक कंपकंपी छूटी ----
इन भूके बच्चों का 
इस भूकी पीढ़ी का 
एक दर्द बन गया है 
हर रोज़ पेट का पलना 
एक दर्द बन गया है 
हर रात चाँद का उगना 

                              अशोक जौहरी 

 पोछो इन आँखों को ......

पोछो इन आँखों को 
रोको ये अश्रु कण 
प्यार भरी बाहों में 
दर्द क्यों पिघलता है 

                      तप्त मौन ओठों से
                      पीते तुम अश्रु कण 
                      आह भरी सांसो से 
                      ह्रदय गीत रचता है 

कुछ तो बतलाओ तुम 
अश्रु क्यों बरसता  है 
मौन अधर रखने से 
दिल मेरा कसकता है 

                     अब तो जिद छोड़ो  तुम  
                     पड़ि  गाँठ खोलो तुम 
                     गाँठ पड़ी रहने से    
                     प्यार पतित होता है 

जीवन तो चलना है 
गिर कर संभलना  है 
चल कर फिर गिरना है 
पर फिर भी चलना है 

                      भूलो बिसराओ अब 
                      सपनो के गाँव में    
                      बीत गई शाम जो 
                      उसका क्या करना है 

वक़्त   की कगार पर   
टूट गई नाव जो 
मांझी के रोने से 
उसका क्या होना है 

                                     अशोक जौहरी  

   
          
सुबह -सुबह सी नहीं ....

सुबह -सुबह सी नहीं ,शाम -शाम सी नहीं 
हर पहर छा गया है धुँआ ही धुंआ 
रोशनी लग रही रोशनी सी नहीं 
हर दिया  लग रहा है भटकती शमा 
रास्ते  सो रहे कोई राही  नहीं 
कल जहा से गुज़र गए कई कारवां 
जमी वीरान है दूर तक कोई दीखता नहीं 
कितना अनजान लगता है ये आसमा 
कितने दिन हो गए नींद आई नहीं 
जो सुला दे मुझे उनकी लोरी कहाँ 

                                   अशोक जौहरी 
 बहुत अँधेरा है

कोई दिया तो जलाओ 
बहुत अँधेरा है 
रात ने दिन 
शाम ने सुबह का 
अपहरण कर लिया 
कोई पता तो लगाओ 
बहुत अँधेरा है 

चाँद परेशां 
तारो में खलबली सी है 
धूप  कि खोज 
बादलों  में जारी है 

नगर से दूर 
टूटा हुआ रथ 
मिला सूरज का 

कोई पता तो लगाओ 
बहुत अँधेरा है 

                           अशोक जौहरी 

Tuesday, November 19, 2013

दूर मंज़िल है

दूर मंज़िल है अभी 
चलना बहुत है शेष 
ये माना राह में अवरोध है 
मुश्किल बहुत है 
पर तुम्हारे साथ हिम्मत है 
साथ मेहनत भी 
विश्वास खुद पर रख 
कदम आगे बढ़ाना 
बीच रस्ते में 
तुम्हे थकना नहीं है 
और मंज़िल से पहले 
कही रुकना नहीं है 

                अशोक जौहरी 
प्यार का उपहार

प्यार की मुस्कान है तू 
प्यार का उपहार है तू 
मेरी प्यारी सी परी 
मेरी नन्ही सी परी 
मेरे दिल का अरमान है तू 
इस जीवन में मैंने पाया 
पहला सच्चा ख्वाब है तू 

                         अशोक जौहरी 
नाचे धरा.........

नाचे धरा झूमे गगन
मन रोम -रोम खिल जाए
पेड़ो पर पंछी कुकुहाए
और समीर सरगम हो जाए

कदम -कदम हो दीप ख़ुशी के
राहो  पर सूरज खिल जाऍ
रजनी आए स्वप्निल-स्वप्निल
रजत चांदनी नभ पर छाए

नेह मिले इतना जीवन में
ह्रदय तुम्हारा भर -भर जाए
तेरे ऊर की  अभिलाषाए
सभी पूर्ण हो जाए

मेरी प्यारी बिटिया रानी
तुमको है आशीष यही
जीवन सुन्दर सफ़र लगे
हर प्रभात सुख लाए

                                 अशोक जौहरी  
तुमको हमारी याद कभी क्यू नहीं आती 
हमको तुम्हारी याद भुलाई नहीं  जाती 
मुद्दत हुई देखी नहीं सूरत तेरी हमने 
तूने भी न की याद न भेजी कोई पाती 
सारी उमर तो काट दी हमने अंधेरो में 
हमको न मिला कोई दिया और न बाती 
गुलशन को संवारा था बहुत फिक्र  से हमने 
था इंतज़ार हमको ,बहार क्यों नहीं आती 

                                    अशोक जौहरी 
कुदरत ने कुछ छीन  लिया
तो कुछ हमको बख्शा   है
जो छीन लिया वो दर्द मेरा
उसको तो हमको जीना है
जो बख्शा है वो कम तो नहीं
आखिर तो हमको जीना है

                         अशोक जौहरी 
मेहमान कि मानिंद रहता हु यहाँ 
मुझे मेरा घर ही मेरा क्यू नहीं लगता 
खुले दिल से मैं यहाँ क्यू जी नहीं सकता 
यहाँ कोई क्यू मुझे अपना नहीं लगता 
मुद्दतो से ख्वाब देखा था इक हमराह का 
वक़्त आया तो ये जाना  वो इक ख्वाब था 
ज़िंदगी ख्वाब की   मानिंद तो होती नहीं 
ज़िंदगी की    राह मनचाही सदा होती नहीं 

                                     अशोक जौहरी 
गुरु माँ 

गुरु माँ  गुरु माँ गुरु माँ 
तू ही गंगा तू ही जमना 
तू ही तो संगम है 
तू ही पूजा तू ही अर्चना 
तू ही अक्छत  चन्दन 
तू प्रकाश की अखंड ज्योति है 
तू ही ज्ञान की   गंगा  
अब न शेष अज्ञानी हो गा 
ज्ञान कि ऐसी अलख जलाई 
लाखो पाओं चल  पड़े  उस पर 
राह जो तूने दिखाई 
गुरु माँ गुरु माँ। …। 

                      अशोक जौहरी 

प्यार तो है

मेरी मंज़िल तू नहीं तो न सही 
इस भटकती रूह कि पनाह तो है 
प्यार पहला  मै तेरा जो नहीं तो न सही 
ज़िंदगी कि डगर में तू मेरी हमराह तो है 
उम्र भर तरपा किया जिस प्यार कि खातिर 
तू नहीं वह प्यार पर प्यार तो है 
कितनी राते साथ रह कर भी जुदा हमने बिताई 
फिर भी हर शै हमे तेरा ,तुझे मेरा इंतज़ार तो है 

                                                  अशोक जौहरी 
दुश्मनी

यू तो न थी कोई दुश्मनी मेरी 
किसी अपने ने निभा डाली है 
तो मेरा सबाल है बस उससे यही 
क्या खता हो गई क्यू घुला ये ज़हर 
दुश्मनो से दोस्ती जिसकी निभे 
कैसे उससे दोस्ती अपनी निभे 
प्यार तेरा हो गया अब बेअसर 
या कदम मेरे उठे उलटी डगर 
चार दिन की ज़िंदगी प्यार से कटती  मगर 
प्यार के दुश्मन यहाँ बैठे हुए है हर डगर 
                  
                                           अशोक जौहरी  

Monday, November 18, 2013

राजनेता

अक्सर दूर दर्शन पर
राजनेता अपने बयानो में
ताल ठोक कर
कुछ मुहावरे दुहराते है
खुद को साफ़ सुथरा बताते है
एक -
कानून अपना रास्ता लेगा
हम आप और वे
सुब बहुत अच्छे से जानते है
कानून का रास्ता कितना लम्बा
पेचीदा घुमावदार होता है
क़ानून के हाथ तो लम्बे होते है
पर वह आँख से अँधा होता है
दो -
दूध का दूध और
पानी का पानी हो जाएगा
बहुत अच्छे से हम सब जानते है
आज इस ज़माने में
न दूध -दूध सा रहा
न पानी -पानी सा है
ये राजनेता
कब समझे गे जनता का दुःख दर्द
कुब कानून ,पुलिस ,अधिकारी और नेता
होगे जनता के लिए सुलभ सहज
कब जनता को मिलेगा
शुद्ध दूध और शुद्ध जल
क्या इस पर भी वे
 कोई बयान दे गे

                                अशोक जौहरी 
ग़ज़ल

जब दर्द हद से गुज़रता है 
तो ग़ज़ल होती है 
जब अश्क़ आँखों से निकलता है 
तो ग़ज़ल होती है 
जब दिल में अरमां मचलता है 
तो ग़ज़ल होती है 
जब हुश्न इश्क़ से मिलता है 
तो ग़ज़ल होती है 
जब प्यार से छू ले कोई  दिल को 
तो ग़ज़ल होती है 

                             अशोक जौहरी 
ज़िंदगी -चार दिन

ज़िंदगी के चार दिन थे 
उसमे बचे अब एक आधे 
जो भी अपने थे करीबी 
लग रहे क्यों वे पराए 
हम बड़े तो हो गए 
पर दिल हुए छोटे हमारे 

प्यार की छाई हुई थी  धूप 
विश्वास के महके हुए थे फूल 
वक़्त कि बदरी यूं छाई 
फूल मुरझाए बचे बस शूल 
काश वो दिन लौट आए 
प्यार महके फूल मुस्काए 

                              अशोक जौहरी 
भ्रष्ट तंत्र मंत्र है

भ्रस्ट तंत्र मंत्र है 
जेब भरो यन्त्र है 
देश यह स्वतंत्र है 
जनता परतंत्र है 
हर तरह से पस्त है 
हर योजना ध्वस्त है 
फिर भी नेता मस्त  है   
नई योजनाओ कि फेहरिस्त है 
पहले सबने कमीशन खाए 
फिर सब पर कमीशन बिठाए 
यह घोटाला तंत्र है 
यह सरकारी गणतंत्र है 
जब जेबे सबकी भर गई 
तो चुनाव कि राह प्रशस्त है 
किसको मिलती है कुर्सी 
और किसकी शिकस्त है 
फुटपाथ पर पड़ा 
ठंड से ठिठुरता 
भूँखा अधमरा आदमी 
क्या जाने ----
यही लोकतंत्र है 
यही गण तंत्र है 

                       अशोक जौहरी 
राखी धागा प्रेम का 
राखी धागा प्रेम का 
यह बंधन है नेह का 
बहन भाई की प्रीत है 
कितनी पवन रीत है 
अरमानो के पुष्प संजोए 
विश्वासो की महक बिखेरे 
बहन लगाए प्यार से 
भाई के मस्तक पर रोली 
आशीषो से भर दे बहना 
भाई के किस्मत कि झोली 

                                    अशोक जौहरी 

Sunday, November 17, 2013

      
 खो भी नहीं सकते 

न तुमको छोड़ सकते है 
तेरे हो भी नहीं सकते 
ये कैसी बेबसी है कि 
हम रो भी नहीं सकते 
ये कैसा दर्द है दिल में 
हर पल तडपाए  रखता है 
तुम्हारी याद में डूबे हुए 
हम ,सो भी नहीं सकते 
छुपा सकते न दिखा सकते है 
 हम या रब 
कुछ ऐसे दाग है दिल पर 
जो हम धो भी नहीं सकते 
सोचा था कि एक दिन 
छोड़ जाएगे ये दुनिया 
तुम्हे पा तो नहीं सकते 
पर यो खो भी नहीं सकते  


उदास पांव 

शाम आती है 
उदास पांव से 
रोशनी पर सियाही पोत जाती है 
रात के साए 
काले ,सुरमई और फिर रुपहले 
हो जाते है 
चाँद तारे सभी दिल को लुभाते है 
पर आज फिर 
रोज कि तरह 
मेरे ख्वाब 
क्वाँरे के क्वाँरे 
रह जाते है 
कल सबेरा फिर आएगा 
रौशनी ताज़गी 
और उम्मीद के साथ 
दिन बीतते न बीतते 
वह फिर से  छल जाएगा 
कल फिर आएगा 
उदास पांव से 

Friday, November 15, 2013

फ़ैल रही आग से देश को बचाओ

इनकी मत मानो ,इनको मनाओ
फ़ैल रही आग से देश को बचाओ
भटके कदम जो रस्ते पर लाओ
वक़्त कि पुकार है, फ़र्ज़ निभाओ
            फैला अगर देश में खुनी आतंक
            क्या होगा धरती कि माटी का रंग
            बहकाया किसने देश के सपूतो
            क्यों छेड़ रखी है घर में ही जंग
चाहे कश्मीर हो या हो   पंजाब
चाहे कोई धर्म हो कोई हो जात
कोई भी भाषा हो कोई विश्वास
सब माँ भारती के ही है  अंग
            सुन्दर सी बगिया, महकी पुरवैया
            गांव -गली चिहुक रही सोनचिरैया
            आए लुटेरे सब लूट कर चले गए
            अब देशी लुटेरो से इसको बचाओ।  
    

Saturday, November 9, 2013

स्वार्थ की आँधी 

स्वार्थ की आंधी में देश खड़ा मौन क्यों 
आदमी ने आदमी को इस कदर बांटा 
हिलमिल कर रह रहा सदियों से भारती 
कुर्सी पर बैठे जो उनका क्या घाटा 
परदादे जिनके आपस में  सगे भाई थे 
उनके ही बच्चो में नहीं कोई नाता है 
ये मेरा अल्ला ,  ये मेरा ईश्वर  है 
टुकड़ो में बंट गया विश्व का विधाता 
कलिओं  को चटखना     

जीवन है अगर अपना जीना तो पढ़ेगा 
रो -रो के ही हसिये मगर हसना तो पढ़ेगा 
 अँधेरी सूनी सी है  राहें औ तूफानी  हवाए 
मंज़िल पे पहुचना है तो चलना तो पढ़ेगा 
जब उम्र के योवन में तूफ़ान सा आए 
कश्ती को किनारे कही करना तो पढ़ेगा 
जब दर्द कि लहरे हो तारो सी कैसे सांसे 
तब शब्द को गीतो में ढलना तो पढ़ेगा 
जब रूठा हुआ यार आ के द्वार थपथपाए 
मन में पढ़ी गांठो को खुलना तो पढ़ेगा 
जब  कलिओ को हवा प्यार कि सहलाए 
तब  कलिओ को  चटखना   तो पढ़ेगा  

Tuesday, October 29, 2013

गीत बैरी हो गए 

गीत  बैरी हो गए 
शब्द मेरे थे मगर 
सब भाव तेरे हो गए 
दर्द कि लहरे उठी 
तो दिल मेरा रोया बहुत 
नयन मेरे थे मगर 
सब अश्क तेरे हो गए 
ज़िंदगी ने है दिया 
कुछ ऐसा सिला 
प्रीत तूने थी करी 
पर पीर मेरी हो गई 
गीत बैरी हो गए 
सब मीत बैरी हो गए 
                  जौहर। 
गांधी 

एक लाठी  डेढ़ हड्डी 
ढाई अक्छर सत्य के 
प्रेम  की धोती लपेटे 
भीड़ को संग -संग समेटे 
सोते भारत को जगा कर 
उसकी आज़ादी दिल कर 
तुम  कहाँ खो गए पितामह ?
जिन रास्तो को जोड़ के तुमने 
आज़ादी का चौक बनाया 
उसी चौक से आज ये राही 
उलटे पथ को लौट चुके है 
ओठों पर है नाम तुम्हारा 
मन में खुद को पूज रहे है 
ये कैसी पूजा है ?
और कैसे है हम पुजारी ?
हत्या और पूजा में भेद नहीं समझते 
पूजा करने को ,हत्या करना भी है 
कितनी बढ़ी लाचारी 
पहले तुमको गोली मारी 
फिर तुम्हारी तस्वीर  मढ़वा कर 
सरकारी विज्ञापन सी 
पूजा कर डाली। 
                 अशोक जौहरी