Wednesday, October 6, 2010

मन भटकता है ..

मन भटकता है अकेले इस भरे पुरे जंहा में
है कहा वह ठाव मुझको मिले पल भर छाव
धुप की तपती दुपहरी सा जला मन
ढूढता हर ओर जैसे प्यार की एक छांव
राह जितनी चली ,दूर उतने आ गए है
और चलने को उठते नहीं अब पाओ
शहर में भटके मुसाफिर सा थका मन
हो व्यथित फिर खोजता है आज अपना गाओ।

प्रणय गीत..

जब से बिछुरे प्राण दीप बाती से हम तुम
यो लगता है यह जीवन एक विरह गीत है
धुँआ धुँआ सी सुबह ,शाम हर लगे कुहासी
बिना तुम्हारे मावस है हर पूरनमासी
पर आमावसी इन घरियो में मेरे प्रीतम
महा मिलन की स्मृति एक प्रणय गीत है
रंग गया है आसमान सिंधूरी पत्ते सा
और आदमी है उदास बेवा के मत्थे सा
रीत गया दीप मगर बाती अध् जली है
राह अभी चलने को शेष बहूत पढ़ी है
सो गया है चित्रकार आसमान रंग कर के
आदमी की मुस्कान रंगने को पढ़ी है .
अनपढ़,  गरीबी,  बीमारी , भुकमरी
गाँव -गाँव ,गली -गली बरगद सी खड़ी है
समितिया ,आयोग ,राहत  ये बाँट रहे
कुर्सी पर नज़र इनकी कील सी गड़ी है

                                          अशोक जौहरी